टूटते हैं भ्रम, इन दिनो…

– मौसम राजपूत

चार बाय चार के छोटे से कमरे में बड़ी सी दुनिया, जिसे देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि विध्वंश के बाद बची हुई दुनिया और एक अकेला आदमी दोनों एक दूसरे के विपरित कैसे दिखाई देते होंगे…

झुंझलाहट, गुस्सा, प्यार, ख्वाब, उदासी,दुख, कल्पना सब अपनी बनाई इस दुनिया के भीतर अपने आप पर निकल रहे हैं ।

यही हमारी एक दुनिया समानांतर है …

ये बात हमारे आलावा शायद ही कोई समझता हो कि हम इस दौर के सबसे ज्यादा जद्दोजहद करने वाले, कुंठा में जीने वाले और साम्यवाद से ज्यादा उम्मीदवादी और जरूरत को जरूरत से ज्यादा कम करते हुए संयम को साधने वाले लोग हैं, जो हर रात आचार के साथ खिचड़ी खाते हुए ये सोचते हैं कि इसी निष्ठा और ईमानदारी से वक्त बदलेगा और तब भी जो कुछ इस थाली में होगा उसमें मेहनत और ईमानदारी का स्वाद जरूर होगा ।

पिछले दिनों हम बिना किसी दार्शनिक को पढ़े सुने यूं ही अचानक अपने जीवन की समीक्षा करने पर उतर आए और पाया कि अब तक के इक्कीस साल , जीवंत उम्र का लगभग आधा हिस्सा हमने कैसे गुजार दिया? कहां कहां और किस किस के लिए हमने दिन और रात की भेंट चढ़ाई ?

पीछे पलट कर देखा तो परीक्षा हाल में उत्सुकता और घबराहट से प्रश्नपत्र की प्रतीक्षा करता अपना ही चेहरा नजर आया, पिछले दस बारह सालों की यही तस्वीर उभर कर आई, इस थोड़े से समय में भीतर कौन आया कौन गया, सब धुंधला होता गया, चमकता रहा अपना ही चेहरा, भीड़ में अपनी पहचान बनाने को आतुर, बड़े सलीके से सबकुछ जमाने की कोशिश में खुद को अस्त व्यस्त कर देने वाला अपना ही उदास, उम्र से पहले ही और ज्यादा परिपक्व और पिता की तरह गंभीर होता चेहरा ।

इस छोटे से कमरे में दर्पण नहीं है, क्योंकि अब अंधेरे में भी यह अहसास हो जाता है कि मैं कैसा दिख रहा हूं, खुद को बार बार देखने की आदत से जब कुछ नहीं बदला तो फिर दर्पण की जगह पर नई तस्वीर लग गई : गहन वन में अपने अस्तित्व की तलाश करते हुए अपना अस्तित्व रचता हुआ एक व्याकुल प्राणी ।

दिन अब वैसे नहीं गुजरते कि ठहर कर देख लिया जाए, आपकी बनाई असहमतियों और असंतोष से भरी हुई दुनिया है आप हैं,और आपका साथ देने के लिए है आपका अजनबीपन ।

इसमें न कोई रुचि है न अवसर , बस अपने चारों तरफ से आती जाती आवाजों को सुनते रहिए, उनके स्वर का कोई सेंस नहीं है, उनके शब्दों का कोई अर्थ नहीं निकलता फिर भी बस चुप बैठे रहना क्योंकि कुछ कहा तो फिर बहुत कुछ कहना पड़ेगा और तथ्य तर्क बहस में बहुत सा समय बर्बाद होगा ।

लोग गुजरते हैं, न हंसते हैं, न बोलते हैं , रेल की तरह गुजरते हैं लोग, कमरे के बाहर जो जानते हैं वे असल में इतना ही जानते हैं कि उनकी ही तरह ये भी एक हाड़मांस का दुबलापतला  पुतला है, जो बस फुर्ती से चलते हुए दिखाई देता है बाकी वक्त कहीं का नहीं होता, काश कि लोगों ने ये पढ़ा होता

“हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी

जिसे भी देखना हो कई बार देखना “

अब गूंगापन एक स्थाई आदत बनने की कगार पर है, क्योंकि बोलने में समय बेकार चला जाता है , समय का बेकार चला जाना इस वक्त हमारी सबसे बड़ी त्रासदी है और इस उम्र का सबसे बड़ा पाप । समय तो बेकार जाता ही है यहां जाए कि वहां जाए, उसका आपसे कोई सरोकार नहीं , आपका उससे सरोकार है इसलिए चार हाथों से उसे पकड़ने की कोशिश करना आजकल धर्म है ।

फोन अब बस संगीत सुनने के काम में आता है, टेप रिकॉर्डर की तरह, उसमें नंबरों की जगह जगजीत सिंह की आवाज है, और मैसेंजर की जगह साहिर साहब की गजलें, जो आभास देती रहती हैं कि तुम अपने कमरे में एकमात्र जिंदा आदमी हो, टेबल नहीं हो तुम, तुम्हारा ये नाम है और सबकी तरह तुम्हारा भी एक ऊबड़ खाबड़ अतीत रहा है, और भविष्य में भविष्य सुधर जाने के लिए तुम अपने वर्तमान को जेल की सजा दे रहे हो ।  संगीत इसी लिए कि उससे बीच बीच में अपने जिंदा होने का अहसास होता रहता है…

कभी फोन बजता है तो लगता है कोई तो होगा लेकिन उधर से वही आवाज आती है, “सूचना आपका बैलेंस खत्म होने की कगार पर है,जल्द रिचार्ज करें” , और मैं इस झूठी सांत्वना के साथ कंपनी का भी फोन नहीं काटता कि “चलो कोई तो है जो फिक्र करता है, आइडिया कंपनी ही सही,रिचार्ज के लिए ही सही” ।

इस उम्र में चीजों का टूटना भयावह भी होता है और अक्सर अच्छा भी ।

भ्रम हमेशा टूटता है उसकी प्रकृति है टूटना लेकिन मेरे मामले में यह थोड़ा जल्दी हो गया, कच्ची उम्र के भ्रम बड़े भावुक होते हैं, ये भी अपना है वो भी अपना है, ये भी साथ रहेगा वो तो परम प्रिय है लेकिन पिछले समय में टूटने की यह प्रक्रिया इतनी तेजी से हुई कि न उस भ्रम पर हंसी आई न रोना , बस बड़े उदास मन से अपने भ्रम को घर की तरह टूटते हुए देखता रहा, किराए का घर था न इसलिए जाने भी दिया ।

लेकिन सोचता हूं अच्छा हुआ, एक साथ कई संबंध गए लेकिन उनका होना न होना एक वैचारिक भ्रम के आलावा कुछ ज्यादा नहीं था । झूठा संबल भी भला संबल होता है ?

आपको लगता है आपके द्वार पर प्रहरी है और आप बेझिझक सो जाते हैं लेकिन वहां कोई नहीं है, इसका कभी न कभी नुकसान हो जाता है ; इससे अच्छा आपको पता रहे कि वहां कोई प्रहरी नहीं है आप अकेले हैं, तब नींद में खलल तो होगा लेकिन सतर्क रहेंगे, झूठा प्रहरी केवल काल्पनिक सुख दे सकता था, उसका भ्रम , सुरक्षा के लिए खतरा है  ।

जीवन में भ्रम टूटने पर जी हल्का ही लगता है, और अपने और ज्यादा अकेले होने का जरूरी अहसास समय से हो जाना भी अच्छा रहता है , क्योंकि अकेला आदमी ज्यादा सतर्क रहता है ।

कमरे में अकेले, ज्यादा सतर्क होते हुए अनमने मन से ये वाक्य भी डायरी में लिख लेता हूं”अकेला आदमी ज्यादा सतर्क होता है” और अपने अकेलेपन पर गर्व हो उठता है ।

भ्रम टूटे, किसी के साथ होने के, धारणाओं के भ्रम भी टूटे, लगता था “बहुत छोटी सी जिंदगी है, कट जाएगी, कहानियां पढ़ते हुए, लिखते हुए, हमेशा बच्चा ही बने रहकर ? लेकिन हास्यास्पद है, इतना सरल सहज जिसे समझा था उसका भी भ्रम टूटा, नहीं कटेगी इतनी आसानी से और ऐसा रहकर इस दुनिया में उम्र काटना तो और भी मुश्किल है, जब तक आप अपनी दुनिया में जीते हैं तब तक वही सच लगता है जिसे आप अपने लिए चुनते हैं, एक सांचे में ढालकर,बचपन के बाद दुनिया खिलौना नहीं रह जाता कि आज मांगा कल हाजिर।

एक उम्र तक पिता कमाकर लाते हैं , मां थाली परोस देती है, आपको जद्दोजहद करने की जरूरत नहीं होती तब तक लगता है रास्ता इतना ही सरल है, ‘ अब जो कुछ चाहेंगे मिल जाएगा , जितना चाहेंगे सामने होगा’ जब ये सब बंद हो जाता है, जब थाली परोसी हुई नहीं मिलती जब आपको बच्चे से आदमी बन जाने का अहसास होने लगता है, तब ये आभास होता है कि लंबा रास्ता आपको अकेले तय करना है, अपने फैसले खुद लेने हैं, और रास्ता भी खुद बनाना है तब आप दुनिया को वैसा देखते हैं जैसी वह है उसको बहुत ज्यादा आदर्शवादी देखने का कोई फायदा नहीं रहता, यहीं से भ्रम टूटने शुरू होते हैं, परदा उठता जाता है, चीजें अपने नग्न स्वरूप में दिखाई देती हैं आप घृणा करो या गुस्सा वे वैसी ही हैं , उन्हे कुछ और समझना आपका भ्रम था ।

अपने श्रेष्ठ होने का भ्रम भी टूटता है और सही होने का भी,दुनिया को नजदीक से देखने से पहले तक ये लगता है

‘जब आप चाहेंगे तभी परदा उठेगा और आप नायक की तरह मंच पर होंगे और दर्शक आपके अभिवादन को लालायित होंगे’ लेकिन ये भ्रम भी टूटता है, इतनी बुरी तरह टूटता है कि अपने सारे विचार अपनी सारी धारणाएं और अपनी सारी योजनाएं बड़े धैर्य और संयम के साथ फिर से बनानी होती हैं ।

दरअसल हम गांव में उगने वाले हैं , उस जमीन पर जहां जरूरत के लिए इतनी जद्दोजहद रहती है कि आपके आसपास कोई अपना, अपने लिए सपने देखने की गुस्ताखी नहीं करता।

देर से समझ आया कि अपनी जमीन में नमी कम होती है, अचानक ही नायक की तरह रंगमंच पर नहीं पहुंचा जाता, उसके लिए सब किरदार जीने पड़ते हैं, सौ बार उन्ही दर्शकों के आगे से उपेक्षित बनकर गुजरना पड़ता है, अभिनयकर्ता जब कई बार गिरता है , हारता है,टूटता है, अस्वीकृत होता है, तपता है, गलता है फिर जब खड़े रहने योग्य बचता है तो नायक बनता है । तो अधीरता और रेड कारपेट वाला भ्रम भी टूटा ।

“जीवन को इतना ज्यादा संकीर्ण भी नहीं होना चाहिए” ये वाक्य अपने आप से कई बार कह चुका हूं कि लेकिन अक्सर किताब नीचे रखते ही फिर बार बार कहता हूं इस झुंझलाहट के साथ कि इस वाक्य का न मुझ पर कोई असर होता है न इस चार बाय चार के तटस्थ कमरे पर । यह बोध कि इस संकीर्णता के टूटते ही जीवन जहां जाएगा वहां भी कोई रुचि नहीं है तब तक तो बिल्कुल नहीं जब तक चाहा हुआ मिल नहीं जाता ।

इतना मालूम है वैकल्पिक जीवन, जीवन क्या , एक समझौता होता है, जिसमें रुचि होने का सवाल ही नहीं उठता ।

इस उम्र में और क्या क्या पीड़ा रहती है ये इस उम्र से पहले पता होता तो कितना अच्छा होता,लेकिन जिदंगी है कोई मजाक थोड़े है कि आपको हिंट देती फिरे और फिर पता होते हुए भी आप वह सब नहीं कर सकते जहां तक आपकी कल्पना तो पहुंचती है आपके हाथ नहीं पहुंचते, जब ये मालूम था कि इक्कीस की उम्र तक नौकरी पा जाना अच्छा होता है फिर भी अनिश्चितता ही क्यों चुनी? उद्धव के सामने तर्क करती बृज की गोपियों की तरह हमारे भी दस बीस मन नहीं हैं , एक मन में एक ही चीज आ सकती है, तो इस खयाल के साथ इस मन में जरूरत के बजाय सपनों को रख लिया कि कभी “इक बगल में चांद होगा इक बगल में रोटियां”

और इस ख्याल को बकायदा दीवार के चारों तरफ चिपका रखा है, चार बाय चार का यह कमरा उदासी और ख्वाबों से भरा हुआ है, उठते बैठते सोते जागते बस ये दो चीजें साथ हैं इस दिनों, अक्सर दोनों में झगड़ा होता रहता है ,

जब कभी उदासी नजदीक आ जाती है और फिर दिन भर वही खरखराता हुआ पंखा, चारों तरफ अजीब सी चुप्पी, शमशान से लौटते हुए लोगों की तरह दिन भर मायूस चेहरा ।

लेकिन जब उदासी से ख्वाब जीत जाते हैं तो ख्वाब की जहांभर की सहेलियां भी नजदीक आ जाती हैं जैसे कल्पना, ये कल्पना मेरे भीतर यकायक उठती है कि “जब इक बगल में चांद होगा और इक बगल में रोटियां” तब ऐसा होगा तब वैसा होगा, और आंखें अनायास बोल उठती हैं हां यही मंजर तो हम देखना चाहती हैं यही वह तस्वीर है जिसे बनाने के लिए देर रात तक सजग प्रहरी की तरह मै जागती हूं ।

तब हाथ उठते हैं और सोचते हैं तक जहां तक पहुंच पाऊंगा सबको ऊपर उठाऊंगा, जिनके सिर स्पर्श को तरस गए हैं वहां तक जाऊंगा, उन्हे सहारा दूंगा जिनकी लाठियों में बल नहीं रह गया , जिनकी उंगलियां आगे ले चलने वालों की राह देख रही हैं वहां तक जाऊंगा । पैर कहते हैं “जग की रेती पर देख पगचिन्ह तुम्हारे, आएंगे नए मुसाफिर हंसते हंसते” कवि ने इसी दिन के लिए ये लिखा था ।

और दिल उसकी कल्पना सबसे अलग है, वह घर के उस बच्चे की तरह है जो थोड़ी बहुत छूट मिलते ही घर को सिर पर उठा लेता है ,कभी छायावादी कवि की तरह जमाने भर को अपनी करुणा के दायरे में ले लेना चाहता है फिर एक पल में बहुत पीछे छूट चुके उस व्यक्ति की दहलीज पर जाकर लौट आता है, कभी किसी जीते जागते आदर्श हाड़मांस का चित्र खींचता है जैसा इस पृथ्वी पर देखना दुर्लभ है, खैर ख्वाब उदासी से ज्यादा देर तक हावी रहते हैं , कब सुबह से दोपहर और दोपहर से शाम होती है आपको पता नहीं चलता, ख्वाब जब हावी होते हैं तो कमरे की दीवार फिर से रंगीन स्टिक नोट्स से भर जाती हैं, कॉपी में नया शेर दर्ज हो जाता है, पढ़ने के घंटे बढ़ जाते हैं, कुछ लोगों के प्रति गुस्सा बढ़ जाता है,किताबें और ज्यादा अपनी लगने लगती हैं और रात में नींद उस मजदूर की तरह आती है जिसने आधे पेट खाकर दिनभर खूब पत्थर तोड़े हैं बिना रुके बिना थके बिना कहे, सोचता हूं रोज पढ़ाई की चटाई पर बिना बिस्तर जमाए, बिना तैयारी के अस्त व्यस्त सोते हुए मैं कैसा लगता हूं, मुझे उसी मजदूर का सोता हुआ चेहरा याद आता है, मुझे काम से लौटकर घर आए पिता का सोता हुआ चेहरा याद आता है ।

और फिर डायरी में दर्ज हो जाता है कि “उदासी पर ख्वाब का हावी होना अच्छा होता है” ।

तब झुंझलाहट अपने अतीत पर बढ़ जाती है अब तक क्या किया अब तक क्या जिया? इतने कम समय पढ़ाई? जब मालूम था कि खौफजदा आंखों से ख्वाब गिर जाते हैं तो खौफ में क्यों जिए? और फिर नए ख्वाब की नई तस्वीर के साथ सब नया,नया शेड्यूल , नई किताब,नई कॉपी,नई कल्पनाएं, अफसोस कि यह नयापन तब तक ही बना रहता है जब तक कि कोई बेढंगी बात नहीं करता या किसी की कोई गैरजरूरी टिप्पणी याद नहीं आती, किसी के कुछ कहते या याद आते ही फिर वही झुंझलाहट जैसे युद्ध में सेना आगे बढ़ ही रही थी कि कोई सेनापति के मारे जाने की झूठी खबर लाकर सबको पीछे धकेलने लगता है ।

यही वजह है किसी को कारणवश भी फोन लगाने पर घबराहट होती है, किसी दोस्त या दूर के रिश्तेदार के दूर से दिखाई दे जाने पर भी बीपी बढ़ जाता है क्योंकि किसी की बातें मेरी समझ में नहीं आती लेकिन सुनना भी धर्म है लेकिन इस धर्म के बाद वे तो चले जाते हैं उनके शब्दों का जो पोस्टमार्टम मन करता है वह बहुत डिस्टर्ब कर जाता है मानसिक रूप से ।

कुछ तो लोग कहेंगे वाले लोगों का अर्थ यह रहता है कि बड़े सपने आसान नहीं होते और जिंदगी को बहुत मुश्किल बना देते हैं , जल्दी नौकरी पकड़ लो, रिश्तेदार, गांववाले, अमीर, नौकरी वाले दोस्त,दूर के रिश्तेदार का इंजीनियर या एमबीए बेटा वही प्लेसमेंट वाला… ये अंकल ये फूफा ये जीजा,इसका फ्लैट,उसकी शादी,उसकी नौकरी,इसका घर, … इसका सिलेक्सन, उसका बिजनेस,इसकी खेती, उसका मकान,उनकी दुकान, इसका ये इसका वो …

लब्बो लुआब ये कि सारी दुनिया बुद्ध की तरह निर्वाण प्राप्त करती जा रही है और हम? हम घास काट रहे हैं, हमें इतनी बेइज्जती सहने में मजा आने लगा है, हम अभाव में ही मर जाना चाहते हैं, हमे ये पैर फैलाने भर जितना कमरा बहुत उम्दा लगने लगा है, हमें नकारा रहना पसंद है, हम किसी की सुनना नहीं चाहते, हम बेकार तो हैं ही मूर्ख भी हैं, विद्वान वे ही हैं जो सरकारी दफ्तर में बाबू हैं , और जिनके पास अपनी गाड़ी अपना घर है ।

कुछ तो लोग कहेंगे, बेशक वे कहते हैं, नए नए तरीके से कहते हैं, कहना उनका कर्तव्य है और सही कहते हैं, उनके इसी कर्तव्य और उनके अच्छे औचित्य के कारण मैं लोकविहीन होता जा रहा हूं,मेरे चारों तरफ लोग कम होते जा रहे हैं और खालीपन बढ़ता जा रहा है, जहां लोग होने थे वहां भी रिक्तता है जहां रिक्तता होनी थी है वहां भी रिक्तता ही है एक अजीब सन्नाटे से भरी रिक्तता …

मैं सोच समझकर चलने को आदर्श समझता था, अब सोचकर चलना पीड़ादाई हो गया है, चलना तो चलना है ही, सोचना और ज्यादा कष्टपूर्ण है, जिसे सोचिए,जहां सोचिए, जब सोचिए कोई सिरा नही मिलता, नहीं ये कहीं खत्म होता है ।

इस झुंझलाहट,जरूरत से ज्यादा सोचने, अनायास उदासी, और अपने होने की लगातार उपेक्षा के बाद पता चलता है कि  स्मृति कमजोर हो रही है और मानसिक रूप से खुद को कमजोर कर रहा हूं और इसके जिम्मेदार खुद ही ; तब …। नहीं मैं बादाम का डिब्बा ढूंढने की गफलत में नहीं रहता न टाइम टेबल में कुछ एडिशन होता है, न मैप से भरी दीवार पर नया सूत्र चस्पा होता है,

बस भीतर ही भीतर सोचता हूं कि अब कम सोचूंगा और फिर देर तक सोचता हूं कि क्या स्मृति के कमजोर होते जाने के यही लक्षण हैं? और फिर विवेकी राय की सारी रचनाएं याद करने की असंभव कोशिश करता हूं, सोचना नहीं छूटता, सोचने के विषय बढ़ जाते हैं, “कभी किसी मित्र ने कहा था जितना तुम एक दिन में सोच लेते हो उतना मैं महीनेभर में भी नहीं सोचता” एक सीमा के बाद सोचना बीमारी बन जाता है, आप कोशिश भी करें कि सोचना नहीं है तो भी सोचेंगे कि सोचना नहीं है और सोचेंगे कि क्या क्या नहीं सोचना है क्योंकि सबकुछ तो छोड़ा नहीं जा सकता फिर सूची बनाते हैं और सूची के विषयों पर देर तक सोचते हैं : घर में बारे में ज्यादा नहीं सोचें? तब याद आता है कि आपका एक घर भी है और इस छोटे से कमरे को चिढ़ाने का मन होता है, लेकिन घर आपका है ये भ्रम भी टूटता है तब जब पहली बार घर छोड़ दिया जाता है । सोचने न सोचने की सूची धरी रह जाती है, सोचते सोचते खुली किताब धुंधली होने लगती है …

चारों ओर नक्शा है, भीतर चुप्पी है, सुनापन है,धीमे चलते पंखे की खट खट पार्श्व संगीत देती है, साहिर, जान एलिया,मीर,गालिब,शमशेर, यशपाल और एक दुनिया समानांतर की कथाओं के शब्द कॉपी से उठकर वापस गिर जाते हैं, किताबें गांव में छूटी प्रेमिका की तरह देख रहीं हैं, अस्पृश्य, जिन्हे अधूरा पढ़कर छोड़ा था उनकी ओर देखने में डर लगता है,आत्मग्लानि से बचने का रास्ता ढूंढना पड़ता है,उदासी और ख्वाब के बीच अपराधबोध अक्सर आता रहता है, जिसकी चुभन इन दोनों से ज्यादा तीक्ष्ण होती है, और इस बात का भय कि अब हालत ए हाल को अब और खराब नहीं करना, इतना दुबलापन ही ठीक है ।

पहले अपराधबोध दूर करने के लिए अच्छे दिन याद कर लिया करता था लेकिन वे भी अब धुंधले होते जा रहे हैं, एक ही दवा ज्यादा समय तक काम नहीं करती, फिर कमरे से बाहर टहल आओ, चाय इस बीमारी का रामबाण इलाज है, खुद को चाय पिलाते हुए लगता है यही एक अच्छा काम है जो खुद के लिए करते हो तुम , यानि कि चाय पीने की लत, लत नहीं है , आत्मग्लानि या उदासी की चुभन बढ़ जाने पर अपने भीतर के उद्विग्न मानुष को शांत करने का चाय ही अच्छा तरीका है ।

जब चाय का कप लेकर बेंच पर बैठते हैं तो सत्ता वाली फीलिंग आती है, यह आत्मगौरव तब तक ही रहता है, जब तक चाय दुकान का मालिक आपको तखरिया कहने वाली निगाह से नहीं देखता… उसे आपके दिमाग की पिक्चर से क्या लेना देना, उसके लिए आपके आत्मविश्वास से ज्यादा बड़े हैं पांच रुपए;

फिर वही कमरा, वही चुप्पी,वही मैप, नोट्स …वही एक दुनिया समानांतर…

और फिर से उदासी … फिर से आत्मग्लानि, फिर से बाहर , फिर लिखकर छोड़ दो, फिर पढ़कर भूल जाओ ।

सामने मैप पर सपनों के देश अमेरिका के ऊपर अलास्का से ऊपर व्यूफोर्ट सागर के पास स्टिकी नोट्स लगा हुआ है जिस पर लिखा है राष्ट्रभक्ति, सम्मान, अवसर और नीचे नाम लिखा है, किसका? पहले किसी और के होने की प्रगाढ़ संभावना थी लेकिन नाम का भी भ्रम टूटना अच्छा रहता है,तो सिर्फ अपना अकेले का, जिसे पढ़ते ही पार्श्व संगीत में तालियों की गड़गड़ाहट महसूस होती है, नहीं भाई इतना भी आत्मकेंद्रित और स्वार्थी होना अच्छा नहीं… (कैसा लगा होगा कर्ण को अंग का राज्य पाकर?

इस तरह सब भ्रम टूटते हैं धीरे धीरे, लेकिन ख्वाब नहीं टूटते, सब टूटना चाहिए इस उम्र में, भ्रम भी, पूर्वाग्रह भी , दिल भी, किसी से उम्मीद भी, लेकिन ख्वाब नहीं टूटने चाहिए,सब शाखें टूटतीं हैं तो बरसात आने पर पेड़ और ज्यादा हरा हो जाता है लेकिन ख्वाब टूटते हैं तो वह जगह बंजर रह जाती है, उसकी टीस उसकी चुभन उम्र भर नहीं जाती । अब डायरी निकाल रहा हूं, दर्ज होता है”सब टूटता है तो जगह फिर हरी भरी हो जाती है लेकिन ख्वाब टूटते हैं तो उस जगह पर बंजरपन आ जाता है, ख्वाब नहीं टूटने चाहिए”

तो ख्वाब अंतिम सत्य है इन दिनों, कुछ लोगों का जीवन ही ख्वाब देखने और पूरा करने की प्रक्रिया का पर्याय बन जाता है,ऐसे लोग थोड़े संकीर्ण हो जाते हैं लेकिन संतुष्ट भी रहते हैं।  कुछ लोग भ्रम टूटने के बाद कुछ अच्छा घटित होने की उम्मीद में भटकते रहते हैं, सहते रहते हैं, अपने चारों तरफ निरर्थक लोगों के निरर्थक शब्दों को सम्मान पाता देखकर भी अपने विराट शब्दकोश को मारे रहते हैं ।

मैं इन दोनों श्रेणियों में खुद को पाता हूं, लेकिन पूरा नहीं, और कोई तीसरी श्रेणी है जिसके नजदीक हूं, अच्छी जगह श्रेणियों और पंक्तियों में नहीं है, अकेले है ।

अब डायरी निकाल रहा हूं लिख रहा हूं”अच्छी जगह श्रेणियों और पंक्तियों में नहीं है अकेले है” और अनायास अपने अकेलेपन पर गर्व करने की एक वजह मिल जाती है ।

अपने चार बाय चार के स्वप्नगृह में ढेर सी किताबों के बीच बैठ जाता हूं अकेले होने के उस सुख के साथ जिसके होने का एक ही अर्थ है कि तुम्हारे भ्रम समय से बहुत पहले टूटे, अब तुम्हे समय से बहुत पहले कहीं पहुंचना चाहिए, लेकिन यात्रा तो तय करनी अनिवार्य शर्त है, वैसे भी वक्त से पहले परिपक्व हो जाना हमेशा अच्छा नहीं रहता, नर्सरी में अपने साथ के पौधों के साथ हंसता इठलाता एक पौधा अचानक से पेड़ हो जाता है, और हर आते जाते मुसाफिर को छांव देने की फिक्र करने लगता है ।

सारे मनोभावों को काटकर हर बार इसी अंतिम सत्य पर पहुंचता हूं कि फिलहाल ख्वाब ही अंतिम सत्य है ।

उदासी छंट रही है,आत्मग्लानि कुछ देर के लिए विदा होती है, अस्त व्यस्त मन सलीके से बैठ जाता है , एक और कॉपी नोट्स से भर जाती है, एक और किताब अपना दामन रंगरेज हाइलाइटर से रंगवा चुकी है ।

ए 4 साइज का एक और प्लेन कागज कभी न पूरे होने वाले अतिअनुशासित टाइम टेबल का बोझ झेलने को तैयार है।

ख्वाब फिर हावी होते हैं, आंखें फिर कल्पना करती हैं:” नायक परदे पर आ रहा है… सभागार अब आलोचना नहीं कर रहा, सब देख रहे हैं, आश्चर्य से… सब जाने पहचाने चेहरे हैं, लेकिन धुंधले हो गए हैं… यही चेहरे जैसे कह रहे हैं… सूतपुत्र कर्ण?तुम? तुम्हे तो हम चार बाय चार के कमरे में अकेला छोड़ आए थे? तुम ? तुम नायक?”

रीति तो कहती थी मजदूर का बेटा मजदूर , राजा का बेटा राजा । किंतु, तुम नायक ? नायक के हाथ अभिवादन करते हैं , पार्श्व में संगीत बजता है “एक बगल में चांद होगा इक बगल में रोटियां” …

दर्शक अभिनंदन करते हैं, आलोचक प्रशस्ति पढ़ते हैं, प्रतिस्पर्धी रास्ता देते हैं ,नायक को मालूम है ये पूरा ख्वाब नहीं है , नहीं… यह अंतिम सत्य नहीं है … हमेशा की तरह नेपथ्य में अपने किसी निर्देशक के न होने का भान नायक को है , वह सोचता है, यहां रुकना नहीं है …भ्रम तो पालना ही नहीं है, यहां ठहराव नहीं है, और …. और … नींद खुलती है… रात के तीन बज रहे हैं पंखा उसी तरह खट खट कर रहा है, कमरे में चारों तरफ नोट्स फैले हुए हैं, पेन पेंसिल स्केल हाईलाइटर बिखरे पड़े हैं टाइम टेबल के मुताबिक पॉलिटी का पांचवा चैप्टर खत्म करके इकोनामी शुरू करनी है… नायक आंख मसलता है, पानी पीता है , सरसरी निगाह से स्टीकी नोट्स और टाइम टेबल देखता है और ख्वाब को सम्हालकर डायरी में रख लेता है…इकोनामी पढ़ने लगता है, इंतजार करता है जल्दी सुबह होगी, सुबह होगी? सुबह होगी, भले देर से हो , अंधेरा छटेगा , सूरज निकलेगा और खिड़की से उजाला सीधे भीतर आएगा, उजाला होते ही नायक को पहचान लिया जाएगा , नायक अपनी एकाग्रता नहीं खोएगा… कितना पहचाना जाएगा नायक…उतना जितना वह खुद को पहचानता है ?

नायक गहरी सांस लेता है, अपने दुबलेपन की वजह को समझाता है ” उजाला होता है, और उसके बाद : इक बगल में चांद होगा इक बगल में रोटियां”… हाथ सबका सिर स्पर्श करने की कल्पना करता है, पैर पगचिन्ह बनाने लगते हैं, दिल की कल्पना तो असीम है, मस्तक ऊपर उठता है… दबे पैरों से उजाला आ रहा है … नायक बहुत दिन बाद व्यंग्यपूर्ण ढंग से मुस्कुराता है…चलता है, उजाले की खोज में …

वही कमरा, वही दीवारें,वही चुप्पी, वही उदासी, बदलता है तो अपने प्रति थोड़ा मिजाज़ और मिलती है एक कविता पढ़ लेने या लिख लेने की छूट अपने आप से…

(इसे लिखने की वजह आत्मकथा लिखना नहीं है, लंबे समय से अपने ही भीतर कैद व्यक्ति यदि प्रकृति,राजनीति, या समाज  पर लिखेगा तो वह क्या लिख पाएगा, वही संपादकों जैसी राय, प्रवक्ताओं जैसी आलोचना, जो देखते सुनते हैं वह कम जो जीते हैं उसे ज्यादा अच्छे से लिख पाते हैं, लिखने की कोशिश करने पर लिख नहीं पाता, काल्पनिक लिखना तब होता है जब बाहरी दुनिया की कल्पना कर रहे हों ,

अपनी दशा पर अनायास लिख रहा था, सोचा मेरी तरह इस पीढ़ी की भी यही त्रासदी है तो अपने आप से थोड़ी छूट लेकर इसे अच्छे से लिखा, काफी समय लगा, लेकिन यदि आप पढ़ रहे हैं तो आशा है बोझिल नहीं होंगे, और ज्यादा अपेक्षा नहीं है क्योंकि सारी अपेक्षा इन दिनों इस बात पर ही केंद्रित कर रखी है कि “इक बगल में चांद होगा इक बगल में रोटियां”…तब फुरसत से लिखूंगा ,हो सकता है तब लोग भी नायक की पोशाक देखकर लिखे हुए को गंभीरता से पढ़ेंगे ।

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